25-01-94  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

ब्राह्मणों की नेचर विशेषता की नेचर है - इसे नेचरल स्मृति-स्वरूप बनाओ

भाग्य की श्रेष्ठ रेखा खींचने का कलम देने वाले भाग्य विधाता बाप, भाग्यवान विशेष आत्माओं प्रति बोले-

आज बापदादा अपने सर्व विश्व की विशेष आत्माओं को देख रहे हैं। ड्रामानुसार आप आत्माओं का कितना विशेष पार्ट नूँधा हुआ है। आज बापदादा हर एक बच्चे की विशेषताओं को देख हर्षित हो रहे हैं। हर एक बच्चे को देख ‘वाह बच्चे’ यह स्नेह का गीत दिल में बज रहा था। साथ-साथ यह भी देख रहे थे कि बच्चों के दिल से ये ‘वाह-वाह’ का गीत सदा निकलता है? हर कर्म में, हर कदम में, हर संकल्प में ये श्रेष्ठ अनुभव होता है वा कभी-कभी होता है? साधारण जीवन से विशेष जीवन सदा स्वत: रहती है वा स्मृति लाने से अनुभव होता है? जब जीवन है तो जीवन का अर्थ ही है सदा और स्वत: रहे। स्मृति में लाया तो अनुभव किया और स्मृति में नहीं लाया तो विशेषता के बजाय साधारण जीवन अनुभव हो - यह आप विशेष आत्माओं की विशेषता नहीं है। ब्राह्मण जन्म ही विशेष जन्म है। जिसका जन्म ही विशेष है उसका जीवन क्या होगा? विशेष होगा या साधारण? ब्राह्मण जन्म भी श्रेष्ठ, ब्राह्मण धर्म भी श्रेष्ठ और ब्राह्मण कर्म भी श्रेष्ठ। क्योंकि ब्राह्मण जन्म दाता, ब्राह्मण धर्म स्थापक, सर्वश्रेष्ठ परम आत्मा और आदि आत्मा ब्रह्मा बाप है। तो जैसे रचता सर्वश्रेष्ठ तो रचना भी सर्वश्रेष्ठ अर्थात् विशेष है। ब्राह्मणों का कर्म विशेष क्यों है? क्योंकि कर्म में फॉलो करने के लिए आप सबके सामने आदि आत्मा ब्रह्मा बाप सेम्पल है। कर्म में फॉलो साकार ब्रह्मा बाप को करते हो। इसलिये भाग्य विधाता अर्थात् कर्म द्वारा भाग्य की रेखा श्रेष्ठ बनाने वाला ब्रह्मा गाया हुआ है। भाग्य की रेखा का कलम कर्म है। तो श्रेष्ठ कर्म का सहज सिम्बल ब्रह्मा बाप है। इसलिये आप सभी विशेष पुरूषार्थ का शब्द यही वर्णन करते हो कि बाप समान बनना है।

इस अव्यक्त वर्ष में सभी का लक्ष्य क्या रहा? निराकारी स्थिति में निराकार बाप समान अशरीरी स्थिति का अनुभव किया? साकार कर्म में ब्रह्मा बाप समान बनने का नम्बरवार अनुभव किया? तो विशेष जीवन का आधार विशेष जन्म, धर्म और श्रेष्ठ कर्म है। जैसे लौकिक जीवन में भी अगर किसी आत्मा का जन्म विशेष राज परिवार में हो, राजकुमार हो वा राजकुमारी हो तो यह विशेषता जन्म की होने के कारण हर समय सदा और स्वत: रहती है वा बार-बार स्मृति में लाते हैं कि मैं राजकुमारी हूँ? सहज याद होती है ना। पुरूषार्थ करते हैं क्या? चाहे कर्म अपनी रूचि के कारण कितना भी साधारण हो लेकिन अपने जन्म की विशेषता भूल जाते हैं क्या? नेचरल और नेचर बन जाती है। तो आप ब्राह्मण आत्माओं की नेचर क्या है? विशेष है या साधारण है? अभी भी कोई-कोई बच्चे जब कोई साधारण कर्म कर लेते हैं तो बापदादा के आगे अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये क्या कहते हैं? मैं चाहता नहीं था वा चाहती नहीं थी कि ये कर्म करूँ लेकिन मेरी नेचर है इसलिये हो गया। वैसे ये कहना वा सोचना यथार्थ है? मैं कौन? ब्राह्मण जीवन वाले हैं ना। तो ब्राह्मण जीवन वाली आत्मा ये सोच सकती है कि ये मेरी नेचर है? यह कहना राइट है? तो उस समय क्यों बोलते हैं? उस समय ब्राह्मण नहीं बोलता, माया बोलती है। तो जैसे ये साधारण नेचर वा मायावी नेचर नेचरल काम कर लेती है ना, इसलिये कहते हैं चाहते नहीं थे लेकिन हो गया। तो ब्राह्मण नेचर अर्थात् विशेषता की नेचर भी नेचरल होनी चाहिये। नेचरल चीज़ सदा रह सकती है। तो विशेष जीवन की स्मृति नेचर के रूप में नेचरल होनी चाहिये वा कभी भूलना, कभी याद होना? तो सदा स्मृति स्वरूप में रहो। स्मृति लाने वाले नहीं, स्मृति स्वरूप। इसलिये बापदादा देख रहे थे-अव्यक्त वर्ष समय प्रमाण समाप्त हुआ, लेकिन बापदादा समान स्वयं को सम्पन्न बनाया? इस अव्यक्त वर्ष का विशेष लक्ष्य रखा कि अव्यक्त अर्थात् फरिश्ता स्वरूप बनना और बनाना है। सभी ने यही लक्ष्य रखा था ना, फिर रिजल्ट क्या निकली? अपने आपको चेक किया?’फरिश्ता भव’ का वरदान भी वरदाता से मिला तो वरदान और लक्ष्य-दोनों की स्मृति से कहाँ तक सफलता अनुभव की है, ये सूक्ष्म चेकिंग स्वयं की की वा ये सोचा कि अव्यक्त वर्ष पूरा हुआ, यथाशक्ति जितना भी अनुभव किया उतना ही ड्रामानुसार ठीक रहा? वर्ष परिवर्तन के साथ-साथ स्व परिवर्तन की गति क्या रही-इस विधि से चेक किया? जैसे वर्ष समाप्त हुआ वैसे स्वयं लक्ष्य और लक्षण में सम्पन्न बने वा ये सोचते हो कि इस वर्ष में और बन जायेंगे? समय और स्वयं की गति समान रही? वैसे तो समय से भी स्वयं की गति तीव्र होनी है क्योंकि समाप्ति के समय को लाने वाली आप विशेष आत्मायें निमित्त हो। तीव्र गति से वर्ष तो सम्पन्न हो गया। मालूम हुआ वर्ष कैसे पूरा हो गया? तो चेक करो - मुझ विशेष आत्मा की परिवर्तन की गति तीव्र रही वा कभी तीव्र, कभी मध्यम रही?

फरिश्ता अर्थात् जिसका पुराने संस्कार और संसार से रिश्ता नहीं। तो चेक करो-पुराने संसार की कोई भी आकर्षण, चाहे सम्बन्ध रूप में, चाहे अपने देह की तरफ आकर्षण वा किसी देहधारी व्यक्ति के तरफ आकर्षण, कोई वस्तु की तरफ आकर्षण कितने परसेन्ट में रही? ऐसे ही पुराने संस्कार की आकर्षण, चाहे संकल्प रूप में, वृत्ति के रूप में, वाणी के रूप में, सम्बन्ध-सम्पर्क अर्थात् कर्म के रूप में कितनी परसेन्ट रही? फरिश्ता अर्थात् डबल लाइट। तो निजी लाइट स्वरूप स्मृति स्वरूप में कहाँ तक रहा? साथ-साथ लाइट अर्थात् हल्कापन, स्व के परिवर्तन के पुरूषार्थ में कहाँ तक लाइट अर्थात् हल्के रहे? मन अर्थात् संकल्प शक्ति में व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने में अर्थात् व्यर्थ के बोझ को हल्का करने में कहाँ तक सफल रहे? इसी प्रकार व्यर्थ समय, व्यर्थ संग, व्यर्थ वातावरण-इस सबमें कहाँ तक परिवर्तन करने में हल्के रहे? ब्राह्मण परिवार के सम्बन्ध में, सेवा के सम्बन्ध में कहाँ तक हल्के रहे? इसको कहा जाता है फरिश्तापन के तीव्र गति की स्थिति। इस विधि से चेक करो और भविष्य के लिये चेन्ज अर्थात् परिवर्तन करो। अपने ब्राह्मण जन्म की विशेषता को नेचरल नेचर बनाना-इसको ही सहज पुरूषार्थ कहा जाता है। सिर्फ एक विशेष आत्मा हूँ-इस स्मृति स्वरूप में स्थित हो जाओ तो बाप समान बनना अति सहज अनुभव करेंगे। क्योंकि स्मृति स्वरूप सो समर्थी स्वरूप बन जाते हैं। वर्ष तो पूरा हुआ। बापदादा रिजल्ट तो देखेंगे ना। तो रिजल्ट में यथाशक्ति मैजारिटी हैं और सदा शक्तिशाली, यथाशक्ति के मैजारिटी में मैनारिटी हैं।

स्मृति दिवस भी बहुत स्नेह से मनाया। अब विशेष जैसे स्नेह से मनाया, वैसे स्नेह का सबूत बाप समान स्मृति स्वरूप बनना ही है। सुना रिजल्ट? आगे क्या करना है? यथाशक्ति या सदा शक्ति स्वरूप? तो देखेंगे इस वर्ष में मैजारिटी सदा शक्तिशाली का सबूत कहाँ तक देते हैं? टीचर्स क्या समझती हो?

किस लाइन में आयेंगे? सदा शक्तिशाली! सबका टी.वी.में फोटो निकल रहा है। क्या भी हो जाये, कैसी भी परिस्थिति बन जाये लेकिन सदा शक्तिशाली। नाम नोट होते हैं ना कौन-कौन किस ग्रुप में आये? अभी टीचर्स का सम्मेलन होने वाला है ना। तब तक की रिजल्ट सभी टीचर्स की क्या होगी? जिसको करना होता है वो कब को नहीं सोचता है। दृढ़ संकल्प का अर्थ है अब। साधारण संकल्प का अर्थ है कब हो जायेगा! तो ‘कब’ वाले हो या ‘अब’ वाले हो? शक्ति सेना बहुत बड़ी सेना है। ‘कब’ वाली हो या ‘अब’ वाली हो? पाण्डव क्या समझते हो? देखो नाम सबके नोट हैं। अभी नाम नहीं सुनाते हैं आखिर वो समय भी आ जायेगा जो नाम सुनायेंगे। समझा!

सबसे ज्यादा संख्या किस जोन की आई है? देखेंगे पंजाब-इन्दौर क्या कमाल दिखाते हैं? टीचर्स भी ज्यादा आती हैं, संख्या ज्यादा तो टीचर्स भी जयादा होती। पंजाब वाले नम्बरवन लेंगे या सेकण्ड? इन्दौर भी नम्बरवन लेंगे? और कर्नाटक क्या करेंगे? कौन-सा नाटक दिखायेंगे? कर - नाटक, तो हीरो नाटक दिखाना, ऐसा-वैसा नहीं दिखाना। और महाराष्ट्र तो महान ही बनेंगे ना?और यू.पी. को क्या कहते हैं? यू.पी.में नदियां हैं अर्थात् यू.पी.पतित को पावन करने वाली है। पावन बनने-बनाने में नम्बरवन। तो यू.पी. वाले भी नम्बरवन बनेंगे। इस समय तो कोई भी नम्बर टू नहीं कहेंगे। राजस्थान तो है ही लक्की, जो राजस्थान में ही चरित्र भूमि है। हेड क्वार्टर राजस्थान में है ना। तो जहाँ हेड क्वार्टर है वो क्या बनेगा? हेड बनेगा ना! सभी खुशी से कह रहे हैं नम्बरवन लेकिन वहाँ जाकर ऐसे नहीं कहना कि क्या करें.. कर नहीं सकते... चाहते तो नहीं, लेकिन हो जाता है... ऐसी भाषा सोचना भी नहीं। अच्छा, डबल विदेशी भी सेवा में रेस अच्छी कर रहे हैं और रेस में नम्बरवन आना है ना। देश वालों को हिम्मत दिलाने में विदेश अच्छा निमित्त बना है। इस हिम्मत दिलाने के कारण एक्स्ट्रा मदद भी मिलती है। समझा! इसी को स्मृति में रख सहज बढ़ते चलो और बढ़ाते चलो। अच्छा!

चारों ओर की सर्व विशेष आत्माओं को, सदा साकार ब्रह्मा बाप के श्रेष्ठ कर्मों को फॉलो करने वाले कर्मयोगी आत्माओं को, सदा विशेषता को नेचरल और नेचर बनाने वाली कोटों में कोई आत्माओं को, सदा दृढ़ संकल्प द्वारा विशेष जन्म, धर्म और कर्म के स्मृति स्वरूप आत्माओं को बापदादा का विशेषता सम्पन्न याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

आप ब्राह्मण जितने सम्पन्न बनते जायेंगे उतना भविष्य में प्रकृति भी प्रगति को प्राप्त करेगी क्योंकि प्रकृति समय प्रति समय अपना सिग्नल दिखा रही है। तो जितनी प्रकृति की हलचल उतनी अचल स्थिति प्रकृति को परिवर्तन करेगी। कितनी आत्मायें समय प्रति समय दु:ख की लहर में आती हैं। तो ऐसे दु:खी आत्माओं का सहारा तो बाप और आप ही हो। तो रहम पड़ता है ना। जब समाचार सुनते हो तो क्या दिल में आता है? नथिंग न्यू-अपनी अचल स्थिति के लिये तो ठीक है लेकिन प्रकृति की हलचल से जब आत्मायें चिल्लाती हैं तो किसको चिल्लाती हैं? तो जब मर्सी, रहम मांगते हैं तो आप लोगों को उनके रहम की पुकार पहुँचती तो है ना! ये छोटी-छोटी आपदायें और तड़पती हैं। ब्राह्मण सम्पन्न हो जाओ तो दु:ख की दुनिया सम्पन्न हो जाये। तो रहम पड़ता है या नहीं? रहम पड़ता है तो फिर क्या करते हो? फिर भी ईश्वरीय परिवार के हैं ना। तो परिवार का कोई भी दु:ख, सुख में परिवर्तन करने का संकल्प तो आता है ना। कोई परिवार में बीमार भी हो तो क्या संकल्प होता है? जल्दी ठीक हो जाये। तो चिल्लाते-चिल्लाते मरना और एकधक से परिवर्तन होना, फर्क तो है ना। महाविनाश और रिहर्सल का विनाश, फर्क है। महाविनाश अर्थात् महान परिवर्तन। उसके निमित्त आप हो। सम्पन्न बनेंगे तो समाप्ति होगी। तो जो परेशान हैं वो तो समझते हैं कि प्रत्यक्षता का पर्दा खुल जाये, लेकिन स्टेज पर आने वाले हीरो एक्टर सम्पन्न तैयार होने चाहिये ना, तब तो पर्दा खुलेगा कि आधे में खुल जायेगा? परिवर्तन की शुभ भावना को तीव्र करना अर्थात् अपने को तीव्र गति से सम्पन्न बनाना। आप भी कभी कैसे, कभी कैसे होते हो तो प्रकृति भी कभी बहुत तीव्र गति से कार्य करती, कभी ठण्डी हो जाती। तो अभी क्या करना है? रहम की भावना इमर्ज करो, चाहे स्व प्रति, चाहे सर्व आत्माओं के प्रति। जहाँ रहम होगा, वहाँ तेरा-मेरा की हलचल नहीं होगी। पूज्य स्वरूप, मर्सीफुल का धारण करो। ठीक है ना। अभी ये लहर फैलाओ। हर संकल्प में मर्सीफुल। संकल्प में होंगे तो वाणी और कर्म स्वत: ही हो जायेंगे। सब चिल्लाते भी क्या हैं? मर्सी-मर्सी। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

माया की छाया से बचने का साधन है-बापदादा की छत्रछाया

सदा अपने को बापदादा की छत्रछाया के नीचे रहने वाली सदा सेफ आत्मायें अनुभव करते हो? सदा छत्रछाया है या कभी बाहर निकल जाते हो? या है बाप की छत्रछाया या है माया की छाया। तो माया की छाया से बचने का साधन है छत्रछाया। तो छत्रछाया में रहने वाले कितने खुश रहेंगे। क्योंकि बेफ़्रिक बादशाह हो गये ना। फ़्रिक है तो खुशी गुम होती है। कभी भी देखो खुशी गुम होती है तो कारण क्या होता है? कोई न कोई चिन्ता, फ़्रिक, बोझ खुशी को गुम कर देता है। और खुशी गुम हुई, कमज़ोर हुए तो माया की छाया का प्रभाव पड़ ही जाता है। कमज़ोरी माया का आह््वान करती है। जैसे शारीरिक कमज़ोरी बीमारियों का आह््वान करती है तो आत्मिक कमज़ोरी माया का आह््वान करती है। फिर उस छाया से निकलने में कितनी मेहनत करनी पड़ती है। अगर माया की छाया स्वप्न में भी पड़ गई तो स्वप्न भी परेशान करेगा। फिर ब्राह्मण से क्षत्रिय बन जाते हैं तो युद्ध करनी पड़ती है। क्षत्रिय जीवन मेहनत का है और ब्राह्मण जीवन खुशी का है। तो क्या पसन्द है? कभी-कभी युद्ध करनी पड़ती है? युद्ध करना अच्छा लगता है? छोटे से भी व्यर्थ संकल्प की छाया कितनी मेहनत कराती है इसलिए सदा बाप के याद की छत्रछाया में रहो। याद ही छत्रछाया है। तो सदाकाल के लिए छत्रछाया में रहना आता है? कभी-कभी के लिये नहीं, सदा। अविनाशी बाप है ना। तो वर्सा भी सदा का लेना है। सदा खुश रहने वाले। छत्रछाया अर्थात् खुश रहना। बेफ़्रिक होंगे ना। सब फ़्रिक बाप को दे दिया कि एक-दो सम्भाल कर रखा है? क्या करें..., कैसे करें.., ये शब्द फ़्रिक के हैं। बेफ़्रिक के बोल सदा विजय के होते हैं। ‘क्या’, ‘कैसे’ के नहीं होते। तो सदा ये याद रखो कि हम सभी बाप की छत्रछाया में रहने वाले हैं। चक्कर लगाने वाले नहीं। संकल्प में भी चक्कर में आये तो चक्कर में आने वाले चकनाचूर हो जायेंगे। आप तो अमर हो ना। अमर हो गये-ये स्मृति सदा ही स्वयं भी बेफ़्रिक और दूसरों को भी बेफ़्रिक बनाती रहेगी। सदा खुशी में ये गीत गाते रहेंगे-पाना था वो पा लिया। बच्चा बनना माना पाना। बच्चा बने अर्थात् पा लिया। अच्छा!

बनारस वाले क्या कमाल कर रहे हैं? बनारस में तो बहुत बड़े-बड़े माइक हैं। मण्डलेश्वर बहुत हैं ना। तो कोई महामण्डलेश्वर नजदीक आ रहा है? आपके बदले वो आपकी विशेषता वर्णन करे। अभी तो यहाँ तक आये हैं कि इन्हों का कार्य भी अच्छा है लेकिन ‘यही अच्छा है’ यह नहीं कहते। यह भी हैं। यही हैं, तब आवाज बुलन्द होगा। जैसे अभी कहा ना 24 अवतार में 25 ये भी गिन लो। तो ये क्या हुआ? ये भी हैं या यही हैं? ‘यही हैं,’यही हैं कहें तो इसको कहा जाता है माइक बन आवाज फैलाना। तो कोई भी अथॉरिटी वाला, अगर अथॉरिटी से बोलता है तो माइक का काम करता है। तो देखेंगे इसमें नम्बर कौन लेता है?चारों ओर ये गीत गाने लगें-यही हैं वो यही हैं। यह तो होना ही है ना। निश्चित है। सिर्फ निमित्त बन रिपीट करना है। अच्छा, राजस्थान के भी जगह-जगह से आये हैं। अभी राजस्थान में और घेराव डालो। अभी राजस्थान में बहुत स्थान खाली हैं। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

अधीनता को समाप्त करने के लिए अधिकार के रूहानी नशे में रहो

अपने को सदा बाप के वर्से के अधिकारी स्वराज्य अधिकारी और साथ-साथ विश्व के राज्य अधिकारी अनुभव करते हो? क्योंकि बाप का वर्सा ही है स्वराज्य और विश्व का राज्य। तो बाप के वर्से के अधिकारी अर्थात् स्वराज्य और विश्व के राज्य अधिकारी। यह विश्व आपके हस्तों पर आयेगा। अभी तो अनेकों के हाथ में है ना। इसलिए विश्व भी हलचल में है। कभी यहाँ लुढ़कता है, कभी वहाँ लुढ़कता है। जब आपके हाथ में आ जायेगा तो हलचल खत्म, एकरस रहेगा। याद आता है विश्व पर कितने बार राज्य किया है! अनेक बार किया है यह अनुभव होता है? बुद्धि के कैमरा में अपने राज्य का चित्र स्पष्ट आता है? या बाप कहता है तो जरूर होगा। ऐसा ही स्पष्ट है जैसे वर्तमान स्पष्ट है। क्योंकि कल की ही तो बात है। कल था, कल आने वाला है। आज स्वराज्य कल विश्व का राज्य। आज कल की बात है ना। तो अधिकारी आत्मा सदा रूहानी नशे में रहती है और नशा पुरानी दुनिया सहज भुला देता है। स्थूल नशा सब कुछ भुला देता है ना। वह है अल्पकाल का और यह है सदाकाल का। जब अधिकार का नशा रहता है तो नई दुनिया के आगे यह पुरानी दुनिया क्या लगती है? कुछ भी नहीं। पुरानी दुनिया को भूलना मुश्किल नहीं लगता है। अधिकारी कभी अधीन नहीं होता। कोई भी बात के अधीन नहीं। जहाँ अधिकार है वहाँ अधीनता नहीं है और जहाँ अधीनता है वहाँ अधिकार नहीं है। अधिकार भूलता है तब अधीन होते। तो कोई भी वस्तु के, व्यक्ति के, संस्कार के अधीन नहीं होना।

माताओं को थोड़ा थोड़ा मोह आता है? साल में एक दो बारी आता है?नहीं। जब कोई ज्यादा बीमार होता है तो मोह आता है? पाण्डवों को क्या आता है? क्रोध नहीं आता रोब आता है? बाप मिला सब कुछ मिला। तो यह हद की बातें कुछ भी नहीं लगती हैं। छोड़ना नहीं पड़ता लेकिन स्वत: ही छूट जाती हैं। मेहनत नहीं करनी पड़ती है।

अच्छा, ये वेराइटी ग्रुप है। रंग बिरंगे वेराइटी फूलों का गुलदस्ता अच्छा है। लेकिन इस समय सब कहाँ के हो? इस समय मधुबन निवासी हो या अपने-अपने स्थान याद हैं? इस समय सब एक हो। मधुबन निवासी बनने में मजा आता है ना? मजा आता हैं तो क्यों जाते हो? कहो सेवा के लिए जाते हैं। मधुबन प्यारा है लेकिन सेवा भी प्यारी है। तो कहाँ भी रहते यह स्मृति में सदा रहे कि सेवा अर्थ हैं। हिसाब किताब के अर्थ नहीं, सेवा अर्थ। ब्राह्मण अर्थात् सेवाधारी। सेवा में मजा है ना। घर समझेंगे तो बंधन है और सेवास्थान समझेंगे तो खुशी है। जा भी रहे हैं तो सेवाअर्थ जा रहे हैं। हिसाब-किताब अर्थ नहीं जा रहे हैं। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

होलीहंस बनने का साधन - मन-बुद्धि की स्वच्छता और ज्ञान रत्नों की धारणा

सदा होली हंस बन गये - ऐसा अनुभव करते हो? होली हंस हो ना! तो हंस क्या करता है? हंस का काम क्या होता है? (मोती चुगना) और दूसरा? दूध और पानी को अलग करना। एक है ज्ञान रत्न चुगना अर्थात् धारण करना और दूसरी विशेषता है निर्णय शक्ति की विशेषता। दूध और पानी को अलग करना अर्थात् निर्णय शक्ति की विशेषता। जिसमें निर्णय शक्ति होगी वो कभी भी दूध की बजाय पानी नहीं धारण करेगा। दूध की वैल्यु पानी से ज्यादा है। तो दूध और पानी का अर्थ है व्यर्थ और समर्थ का निर्णय करना। व्यर्थ को पानी समान कहते हैं और समर्थ को दूध समान कहते हैं। तो ऐसे होली हंस हो? निर्णय शक्ति अच्छी है? कि कभी पानी को दूध समझ लेते, कभी दूध को पानी समझ लेते? व्यर्थ को अच्छा समझ लें और समर्थ में बोर हो जायें। नहीं। तो होली हंस अर्थात् सदा स्वच्छ। हंस सदा स्वच्छ दिखाते हैं। स्वच्छता अर्थात् पवित्रता। तो अभी स्वच्छ बन गये ना। मैलापन निकल गया या अभी भी थोड़ा-थोड़ा है? थोड़ा-थोड़ा रह तो नहीं गया? कभी मैले के संग का रंग तो नहीं लग जाता? कभी-कभी मैले का असर होता है? तो स्वच्छता श्रेष्ठ है ना। मैला भी रखो और स्वच्छ भी रखो तो क्या पसन्द करेंगे? स्वच्छ पसन्द करेंगे या मैला भी पसन्द करेंगे?तो सदा मन-बुद्धि स्वच्छ अर्थात् पवित्र। व्यर्थ की अपवित्रता भी नहीं। अगर व्यर्थ भी है तो सम्पूर्ण स्वच्छ नहीं कहेंगे। तो व्यर्थ को समाप्त करना अर्थात् होलीहंस बनना। हर समय बुद्धि में ज्ञान रत्न चलते रहें, मनन चलता रहे। ज्ञान चलेगा तो व्यर्थ नहीं चलेगा। इसको कहा जाता है रत्न चुगना। व्यर्थ है पत्थर। कभी भी अगर व्यर्थ आता है तो दु:ख की लहर आती है ना। परेशान तो होते हो ना कि ये क्यों आया? तो पत्थर दु:ख देता है और रत्न खुशी देता है। अगर किसी के हाथ में रत्न आ जाये तो परेशान होगा या खुश होगा? खुश होगा ना। अगर कोई पत्थर फेंक दे तो दु:ख होगा। तो बुद्धि द्वारा भी पत्थर ग्रहण नहीं करना। सदा ज्ञान रत्न ग्रहण करना। एक-एक रत्न की अनगिनत वैल्यु है! आपके पास कितने रत्न हैं? अनगिनत हैं ना! रत्नों से भरपूर हैं, खाली तो नहीं हैं? कभी भी बुद्धि को खाली नहीं रखो। कोई न कोई होम वर्क अपने आपको देते रहो। बुद्धि को होम वर्क में बिजी रखो। रोज बाप होम वर्क देता है ना। ये विशेषतायें, वरदान, विशेष धारणायें क्या हैं? ये होम वर्क है। होम वर्क करते हो या क्लास में सुना फिर खत्म? होम वर्क किसलिये मिलता है? बिजी रहने के लिये। तो मातायें होम वर्क करती हैं? गॉडली स्टूडेन्ट हो ना कि घर में जाती हो तो अपने को माता समझती हो? स्टूडेन्ट का काम क्या होता है? स्टडी। कितना सहज करके देते हैं। तो किसमें बिजी रहते हो? पाण्डव बिजी रहते हो? बिजी रहना अर्थात् सेफ रहना। और कितना सहज होम वर्क है! जो सुना वो करना है, बस। कितनी खुशी है कि होमवर्क देने वाला कौन! और कहाँ से आते हैं! कितना दूर से आते हैं! ऊंचे से ऊंचा भगवान् शिक्षक बन करके आते हैं-कितने नशे की बात है! सारे कल्प में ऐसा शिक्षक नहीं मिलेगा। तो होम वर्क अच्छी तरह से करना चाहिये ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

कुसंग और व्यर्थ संग से बचने के लिए सदा ईश्वरीय संग में रहो

सभी अपने को ज्ञान बल और योग बल दोनों में सदा आगे बढ़ने वाले स अनुभव करते हो? दुनिया में और अनेक प्रकार के बल हैं - साइन्स का भी बल है, राज्य का भी बल है, भक्ति का भी बल है लेकिन आपमें क्या बल है? ज्ञान बल और योग बल। ये सबसे श्रेष्ठ बल है। तो योग बल में जो बल होता है, शक्ति होती है वो किसलिये होती है? विजय प्राप्त करने के लिये। जैसे साइन्स का बल है तो साइन्स का बल अन्धकार के ऊपर विजय प्राप्त कर रोशनी कर देता है। ऐसे योगबल सदा के लिये माया पर विजयी बनाता है। तो माया जीत बनने का बल है? कि कभी हार होती, कभी जीत? सदा के विजयी। कभी-कभी के विजयी को विजयी नहीं कहा जायेगा। क्योंकि बाप द्वारा ये ज्ञान बल और योग बल इतना श्रेष्ठ मिला है जो माया की शक्ति उसके आगे कुछ नहीं है। तो योग बल बड़ा है या माया कभी-कभी खेल करने आती है? माया जीत आत्मायें कभी स्वप्न में भी हार नहीं खा सकतीं। स्वप्न में भी कमज़ोरी नहीं आ सकती। स्वप्न भी शक्तिशाली। ऐसे बहादुर हो या कभी-कभी की छुट्टी दे रखी है? सदा के विजयी हैं। आपके मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ है ना। नशा है कि - विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है? तो जन्म-सिद्ध अधिकार कभी खो नहीं सकता। सदा ये स्मृति में रहे कि विजयी हैं और सदा विजयी रहेंगे। या सोचते हो-पता नहीं, रहेंगे या नहीं रहेंगे... कभी ये संकल्प आता है? पता नहीं आगे क्या होगा.... पता नहीं माया आ जाये तो... कभी संग का रंग लग जाये तो.... ऐसे तो तो आता है! अगर ऐसा कोई संग मिल जाये तो क्या करेंगे? उसको भी कुसंग से सत के संग में लायेंगे? क्योंकि जब तक फाइनल रिजल्ट निकले तब तक पेपर तो आयेगा ही। पेपर का काम है आना और आपका काम पास विद् ऑनर होना। कैसा भी संग खराब हो लेकिन आपका श्रेष्ठ संग उसके आगे कितना गुणा शक्तिशाली है! ईश्वरीय संग के आगे और सब संग कुछ भी नहीं है। सब कमज़ोर हैं। खुद कमज़ोर बनते हो तब उल्टे संग का वार होता है। तो माया जीत अर्थात् सिवाए एक बाप के और किसी भी संग के रंग से प्रभावित होने वाले नहीं। इसीलिये सतसंग गाया जाता है। सतसंग की महिमा देखो कितनी है! आप तो सतसंग अर्थात् सत बाप के संग में रहने वाले हो। ऐसे है ना। एक बाप (परमात्मा) का संग है सतसंग और दूसरे सब हैं कुसंग या व्यर्थ संग। कई कुसंग से बच जाते हैं, लेकिन व्यर्थ संग से प्रभावित हो जाते हैं। क्योंकि व्यर्थ बातें रमणीक होती हैं। जैसे आजकल कथायें कितनी रमणीक सुनाते हैं। तो व्यर्थ बातें, व्यर्थ संग बाहर से आकर्षित करने वाला है। इसलिए बाप की शिक्षा है-न व्यर्थ सुनो, न व्यर्थ बोलो, न व्यर्थ करो, न व्यर्थ देखो, न व्यर्थ सोचो। बुरे की तो बात ही खत्म हो गई। लेकिन व्यर्थ में कभी-कभी फंस जाते हैं। बाहर का शो बहुत अच्छा होता है ना। तो सदा के विजयी आत्मायें-मायाजीत जगतजीत। शक्तियां वा पाण्डव ऐसे मायाजीत हो? क्योंकि माया भी नये-नये रूप से आती है, पुराने रूप से नहीं आती। पुराने को तो जान गये हो ना, तो नये-नये रूपों से आयेगी। इसमें निर्णय करने की शक्ति चाहिए कि यह माया है या परमात्म ज्ञान है। तो कितने टाइम में परख सकते हो? या थोड़ा चक्कर खाकर पीछे परखेंगे? अगर थोड़ा भी चक्कर में आ गये तो समय व्यर्थ चला जायेगा और नम्बर पीछे हो जायेगा। फिर मेहनत करके आगे बढ़ सकते हो लेकिन फिर भी दाग तो लग गया ना। कितना भी मिटाओ लेकिन मिटाने का भी मालूम पड़ता है। इसलिए सदा के विजयी बनो। अधिकार है ना। तो अधिकार कोई भी छोड़ता नहीं।

सभी को विशेष यह खुशी रहती है ना कि बाप मिला सब-कुछ मिला?मिला है या मिलना है? अगर कोई आ करके आपको कहे कि नहीं और भी कुछ रहा हुआ है, आओ हम आपको दें तो टेस्ट तो करेंगे ना, थोड़ी टेस्ट करने में हर्जा है क्या? एक बल, एक भरोसा कि थोड़ा-थोड़ा दूसरा भी है? और बहुत अच्छी-अच्छी बातें सुनायें तो सुनेंगे? सुन करके उसको बदलने की कोशिश करेंगे? क्या करेंगे? सुनना भी नहीं है, सुना तो चक्कर में आ जायेंगे। जो सुनना था वो सुन लिया। इसलिये कहते हैं जो पाना था, जो सुनना था, जो करना था वो कर लिया। इतना भरपूर रहो। जरा भी खालीपन होगा तो और कुछ भर जायेगा। भरपूर में और कुछ भर नहीं सकता। तो कोई के भी संग के चक्कर में आने वाले नहीं। ऐसे पक्के रहने में ही मजा है। अगर कच्चे रहेंगे तो कभी कोई यहाँ से आयेगा, कोई वहाँ से आयेगा। पक्के को कोई कुछ कर नहीं सकता। न प्रकृति हिला सकती, न माया हिला सकती। न किसी का संग हिला सकता। कैसा भी वायुमण्डल हो लेकिन वायुमण्डल को बदलने वाले, वायुमण्डल के वश होने वाले नहीं। इतनी हिम्म्त है ना! तो जहाँ हिम्मत है वहाँ बाप की पदमगुणा मदद है ही। ऐसे अनुभव करते हो ना। एक कदम आपका और पदम कदम बाप का। तो सभी हिम्मत वाले हो या थोड़ा हिलने वाले भी हो? दिल से आवाज निकले कि हम नहीं हिम्मत रखेंगे तो और कौन रखेगा? अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सुखदाता के बच्चे मास्टर सुखदाता बनो - न दु:ख दो न दु:ख लो

सभी अपने को तख्त नशीन आत्मायें अनुभव करते हो? इस समय भी  तख्तनशीन हो कि भविष्य में बनना है? अभी कौन-सा तख्त है? एक अकाल तख्त, दूसरा दिल तख्त। तो दोनों तख्त स्मृति में रहते हैं? तख्तनशीन आत्मा अर्थात् राज्य अधिकारी आत्मा। तख्त पर वही बैठता जिसका राज्य होता है। अगर राज्य नहीं तो तख्त भी नहीं। तो जब अकाल तख्तनशीन हैं तो भी स्वराज्य अधिकारी हैं और बाप के दिल तख्तनशीन हैं तो भी बाप के वर्से के अधिकारी। जिसमें राज्य-भाग्य सब आ जाता है। तो तख्तनशीन अर्थात् राज्य अधिकारी। राज्य अधिकारी हो कि कभी-कभी तख्त से नीचे उतर आते हो? सदा तख्त नशीन हो कि कभी-कभी के हो? कभी तख्त पर बैठकर थक जाये तो नीचे आ जायें! नहीं। दिल तख्त इतना बड़ा है जो सब-कुछ करते भी तख्तनशीन। कर्मयोगी अर्थात् दोनों तख्तनशीन। अकाल तख्त पर बैठ कर्म करते हो तो वो कर्म भी कितने श्रेष्ठ होते हैं! क्योंकि सर्व कर्मेन्द्रियां लॉ और ऑर्डर पर रहती हैं। अगर कोई तख्त पर ठीक न हो तो लॉ और ऑर्डर चल नहीं सकता। अभी देखो प्रजा का प्रजा पर राज्य है तो लॉ और ऑर्डर चल सकता है? एक लॉ पास करेगा तो दूसरा लॉ ब्रेक करेगा। तो तख्तनशीन आत्मा अर्थात् सदा यथार्थ कर्म और यथार्थ कर्म का प्रत्यक्षफल खाने वाली। श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्षफल भी मिलता है और भविष्य भी जमा होता है - डबल है। तो प्रत्यक्षफल क्या मिला है? खुशी मिलती है, शक्ति मिलती है। कोई भी श्रेष्ठ कर्म करते हो तो सबसे पहले खुशी होती है। और दिल खुश तो जहान खुश। तो दिल सदा खुश रहता है या कभी संकल्प मात्र भी दु:ख की लहर आ जाती है? कभी भी नहीं आती या कभी-कभी चाहते नहीं हैं लेकिन आ जाती है? दु:खधाम से किनारा कर लिया। किया है या एक पांव इधर है, एक पांव उधर है? एक दु:खधाम में, एक सुखधाम में-ऐसे तो नहीं? आप कलियुग निवासी हो या संगम निवासी हो कि कभी-कभी कलियुग में भी चले जाते हो? संगमयुगी ब्राह्मण अर्थात् दु:ख का नाम-निशान नहीं। क्योंकि सुखदाता के बच्चे हो। तो सुखदाता के बच्चे मास्टर सुखदाता होंगे। जो मास्टर सुखदाता है वो स्वयं दु:ख में कैसे आ सकता है। तो बुद्धि से दु:खधाम का किनारा कर लिया। स्वयं तो सुख स्वरूप हैं ही लेकिन सुखदाता के बच्चे औरों को भी सुख देने वाले मास्टर सुखदाता हैं। तो दूसरों को सुख देते हो कि सिर्फ स्वयं सुखी रहते हो? दाता हो ना। जो बाप का कार्य वो बच्चों का कार्य है। तो बाप हर आत्मा को सदा सुख देते हैं ना। अनुभव है ना। तो फॉलो फादर करो। ऐसे नहीं कोई दु:ख देता है तो आप भी दु:ख देंगे। नहीं। अच्छा, कोई दु:ख दे रहा है तो आप क्या करेंगे? उसे लेंगे या नहीं? आपका स्लोगन ही है ‘ना दु:ख दो, ना दु:ख लो।’ लेना भी नहीं है। अगर लेंगे तो सुख के साथ दु:ख भी मिक्स हो गया ना। तो लेना भी नहीं है। कोई कितना भी कुछ हिलाने की कोशिश करे लेकिन आप सदा अचल रहो। जरा भी कोई हिला नहीं सकता।

अच्छा, सभी अन्तर्मुखी सदा सुखी हो? पाण्डव क्या समझते हैं? अन्तर्मुखी हैं या थोड़ा-थोड़ा बाहरमुखता भी है? कोई बाहर की आकर्षण आकर्षित तो नहीं करती? कभी मनमत, कभी परमत आकर्षित तो नहीं करती? या कभी-कभी थोड़ा मजा चख लेते हो? फिर जब धोखा खाते हैं तो होश में आ जायें। नहीं। हैं ही सदा सुखी रहने वाले, सुखदाता के बच्चे मास्टर सुखदाता। बाहरमुखता से मुक्त हो गये। अच्छा!